लेखनी कहानी -09-Mar-2023- पौराणिक कहानिया
यंत्राणा आपको सोफिया
के हाथों मिलेगी,
उससे आपकी ऑंखें
खुल जाएँगी।
विनय ने इस
भाँति लपककर इंद्रदत्ता
का हाथ पकड़
लिया, मानो वह
भागा जा रहा
हो और बोले-तुम्हें सोफिया का
पता मालूम है?
इंद्रदत्ता-नहीं।
विनय-झूठ बोलते
हो!
इंद्रदत्ता-हो सकता
है।
विनय-तुम्हें बताना पड़ेगा।
इंदद्रत्ता-आपको अब
मुझसे यह पूछने
का अधिाकार नहीं
रहा। आपका या
दरबार का मतलब
पूरा करने के
लिए मैं दूसरों
की जान संकट
में नहीं डालना
चाहता। आपने एक
बार विश्वासघात किया
है और फिर
कर सकते हैं।
नायकराम-बता देंगे,
आप क्यों इतना
घबराए जाते हैं।
इतना तो बता
ही दो भैया
इंद्रदत्ता, कि मेम
साहब कुशल से
हैं न?
इंद्रदत्ता-हाँ, बहुत
कुशल से हैं
और प्रसन्न हैं।
कम-से-कम
विनयसिंह के लिए
कभी विकल नहीं
होतीं। सच पूछो,
तो उन्हें अब
इनके नाम से
घृणा हो गई
है।
विनय-इंद्रदत्ता, हम और
तुम बचपन के
मित्रा हैं। तुम्हें
जरूरत पडे, तो
मैं अपने प्राण
तक दे दूँ;
पर तुम इतनी
जरा-सी बात
बतलाने से इनकार
कर रहे हो।
यही दोस्ती है?
इंद्रदत्ता-दोस्ती के पीछे
दूसरों की जान
क्यों विपत्तिा में
डालूँ?
विनय-मैं माता
के चरणों की
कसम खाकर कहता
हूँ, मैं इसे
गुप्त रख्रूगा। मैं
केवल एक बार
सोफिया से मिलना
चाहता हूँ।
इंद्रदत्ता-काठ की
हाँड़ी बार-बार
नहीं चढ़ती।
विनय-इंद्र, मैं जीवनपर्यंत
तुम्हारा उपकार मानूँगा।
इंद्रदत्ता-जी नहीं,
बिल्ली बख्शे, मुरगा बाँड़ा
ही अच्छा।
विनय-मुझसे जो कसम
चाहे, ले लो।
इंद्रदत्ता-जिस बात
के बतलाने का
मुझे अधिाकार नहीं,
उसे बतलाने के
लिए आप मुझसे
व्यर्थ आग्रह कर रहे
हैं।
विनय-तुम पाषाण-हृदय हो।
इंद्रदत्ता-मैं उससे
भी कठोर हूँ।
मुझे जितना चाहिए,
कोस लीजिए, पर
सोफी के विषय
में मुझसे कुछ
न पूछिए।
नायकराम-हाँ भैया,
बस यही टेक
चली जाए; मरदों
का यही काम
है। दो टूक
कह दिया कि
जानते हैं, लेकिन
बतलाएँगे नहीं, चाहे किसी
को भला लगे
या बुरा।
इंद्रदत्ता-अब तो
कलई खुल गई
न? क्यों कुँवर
साहब महाराज, अब
तो बढ़-बढ़कर
बातें न करोगे?
विनय-इंद्रदत्ता, जले पर
नमक न छिड़को।
जो बात पूछता
हूँ, बतला दो;
नहीं तो मेरी
जान को रोना
पड़ेगा। तुम्हारी जितनी खुशामद
कर रहा हूँ,
उतनी आज तक
किसी की नहीं
की थी; पर
तुम्हारे ऊपर जरा
भी असर नहीं
होता।
इंद्रदत्ता-मैं एक
बार कह चुका
कि मुझे जिस
बात के बतलाने
का अधिाकार नहीं
वह किसी तरह
न बताऊँगा। बस,
इस विषय में
तुम्हारा आग्रह करना व्यर्थ
है। यह लो,
अपनी राह जाता
हूँ। तुम्हें जहाँ
जाना हो, जाओ!
नायकराम-सेठजी, भागो मत,
मिस साहब का
पता बताए बिना
न जाने पाओगे।
इंद्रदत्ता-क्या जबरदस्ती
पूछोगे?
नायकराम-हाँ, जबरदस्ती
पूछूँगा। बाम्हन होकर तुमसे
भिक्षा माँग रहा
हूँ और तुम
इनकार करते हो,
इसी पर धार्मात्मा,
सेवक, चाकर बनते
हो! यह समझ
लो बाम्हन भीख
लिए बिना द्वार
से नहीं जाता;
नहीं पाता, तो
धारना देकर बैठ
जाता है, और
फिर ले ही
कर उठता है।
इंद्रदत्ता-मुझसे ये पंडई
चालें न चलो,
समझे! ऐसे भीख
देनेवाले कोई और
होंगे।
नायकराम-क्यों बाप-दादों
का नाम डुबाते
हो भैया? कहता
हूँ, यह भीख
दिए बिना अब
तुम्हारा गला नहीं
छूट सकता।
यह कहते हुए
नायकराम चट जमीन
पर बैठ गए,
इंद्रदत्ता के दोनों
पैर पकड़ लिए,
उन पर अपना
सिर रख दिया
और बोले-अब
तुम्हारा जो धारम
हो, वह करो।
मैं मूरख हूँ,
गँवार हूँ, पर
बाम्हन हूँ। तुम
सामरथी पुरुष हो। जैसा
उचित समझो, करो।
इंद्रदत्ता
अब भी न
पसीजे, अपने पैरों
को छुड़ाकर चले
जाने की चेष्टा
की, पर उनके
मुख से स्पष्ट
विदित हो रहा
था कि इस
समय बडे असमंजस
में पडे हुए
हैं, और इस
दीनता की उपेक्षा
करते हुए अत्यंत
लज्जित हैं। वह
बलिष्ठ पुरुष थे, स्वयंसेवकों
में कोई उनका-सा दीर्घकाय
युवक न था।
नायकराम अभी कमजोर
थे। निकट था
कि इंद्रदत्ता अपने
पैरों को छुड़ाकर
निकल जाएँ कि
नायकराम ने विनय
से कहा-भैया,खड़े क्या
देखते हो? पकड़
लो इनके पाँव,
देखूँ, यह कैसे
नहीं बताते।